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ईसप की कहानियाँ

अनिल कुमार

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3960
आईएसबीएन :00000

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शिक्षाप्रद,मनोरंजक एवं ज्ञानवर्धक कहानियां....

Isap Ki kahaniyan

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

लालची कुत्ता

एक कुत्ते ने कसाई की दुकान से मांस का एक टुकड़ा चुराया और इधर-उधर भाग कर कोई ऐसा स्थान खोजने लगा जहाँ शान्ति से बैठ कर वह उस मांस के टुकड़े का मजा ले सके। तभी उसे एक नदी के ऊपर बना हुआ पुल पार करना पड़ा। जब वह पुल पार कर रहा था तो उसकी नजर पानी में अपने प्रतिबिम्ब पर पड़ी। यह देखकर वह चौंक गया कि पानी में दिखाई देने वाले कुत्ते के मुंह में भी वैसा ही मांस का टुकड़ा था। वह सोचने लगा कि क्यों न दूसरे कुत्ते की बोटी भी झपट कर खा लूं।
मन में यह लालच आते ही वह दांत निकाल कर गुर्राया और पानी में छलांग लगा दी। परन्तु उस मूर्ख कुत्ते ने जैसे ही दूसरे कुत्ते के मुंह से मांस का टुकड़ा छीनना चाहा, उसके मुंह में दबा मांस का टुकड़ा भी पानी में गिर गया और साथ ही पानी में पड़ने वाला उसका प्रतिबिम्ब भी ओझल हो गया। उसके मुंह में दबा मांस पानी में गिरकर नदी के तल में चला गया। मूर्खता के कारण उसका अपना भोजन भी नदी में डूब गया और उसे उस दिन भूखा ही रहना पड़ा।
निष्कर्ष: जो कुछ अपने पास है, उसी में संतोष करना चाहिए। लालच करने से जो कुछ पास है, उससे भी हाथ धोना पड़ता है।

बारहसिंगे के सींग भले या पांव


एक बार एक बारहसिंगा तालाब के किनारे पानी पी रहा था। अभी वह दो-तीन घूंट पानी ही पी पाया था कि तभी उसे पानी में अपनी छाया दिखाई दी।
अपने सींगों को देखकर वह सोचने लगा—‘मेरे सींग कितने सुंदर हैं। किसी दूसरे जानवर के सींग इतने सुंदर नहीं हैं।’ इसके बाद उसकी नजर अपने पैरों पड़ी। अपने पतले और सूखे पैरों को देखकर उसे बेहद दुख हुआ। उसने सोचा—‘मेरे पैर कितने दुबले-पतले और भद्दे हैं।’
पानी पीकर वह कुछ कदम आगे बढ़ा था कि उसके कानों में बिगुल की आवाज सुनाई दी। वह समझ गया कि शिकारी उसकी ताक में हैं। जान बचाने की फिक्र में वह जितना तेज दौड़ सकता था, दौड़ा। उसके चपल वह फुरतीले पैर शीघ्र ही उसे शिकारियों की पहुंच से दूर ले गए।
वह तेजी से दौड़ता ही जा रहा था और अब घने जंगल में वहां पहुंच गया था जहां घने पेड़ व लम्बी-लम्बी झाड़ियां उगी हुई थीं।
तभी उसके सींग घनी झाड़ियों में उलझ गए और न चाहते हुए भी उसे रुकना पड़ा। सींग कुछ ऐसे उलझ गए थे कि वह हिल भी नहीं पा रहा था। शिकारी भी पास आते जा रहे थे और बारहसिंगा भी सींग छुड़ाने का असफल प्रयास कर रहा था। शिकारी उसके पास जा पहुंचे थे और सरलता से उसका शिकार कर सकते थे।
अब बारहसिंगा मौत के मुंह में खड़ा था, समझ गया था कि अंत अब निकट ही है।
उसने कातर दृष्टि से शिकारियों की ओर देखा, लेकिन वे उसे क्यों छोड़ने वाले थे।
तभी एक तीर आकर उसे लगा और वह जमीन पर गिर पड़ा।
वह सोच रहा था, ‘मैं अपने पैरों को देखकर खुश नहीं था, जबकि इन्होंने ही मेरी जान बचाने की कोशिश की; और मेरे यह सुन्दर सींग...इन्हीं की वजह से मुझे शिकारियों के हाथों मरना पड़ रहा है।’
यह सोचते-सोचते ही बारहसिंगे ने प्राण त्याग दिए।
निष्कर्ष: हर चमकती चीज जरूरी नहीं कि सोना ही हो।

छिपा हुआ धान


एक किसान ने जीवन भर घोर परिश्रम किया तथा अपार धन कमाया।
उसके चार पुत्र थे, चारों ही निकम्मे और कामचोर। किसान चाहता था कि उसके पुत्र भी उसके परिश्रमी जीवन का अनुसरण करें। मगर किसान के समझाने का उन पर कोई असर नहीं होता था। इस कारण वह किसान बेहद दुखी रहता था। जब वह बहुत बूढ़ा हो गया और उसे लगने लगा कि अब वह कुछ दिनों का मेहमान है, तो एक दिन उसने अपने चारों बेटों को बुलाया और कहा—‘‘सुनो मेरे बेटो ! मेरी जीवन लीला जल्दी समाप्त होने वाली है। मगर मरने से पहले मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताना चाहता हूं। हमारे खेतों में अपार धन गड़ा हुआ है। तुम सब मेरी मृत्यु के बाद उस खेत को खूब गहरा खोदना, तब तुम्हें वहां से बहुत-सा धन प्राप्त होगा।’’
यह सुनकर किसान के बेटे बेहद प्रसन्न हुए कि बाप के मरने के बाद भी कुछ नहीं करना होगा और बाकी की जिंदगी मजे से काटेंगे।
कुछ दिनों बाद किसान की मृत्यु हो गई। पिता के मरते ही उसके बेटों ने तुरत-फुरत उसका अंतिम संस्कार किया और दूसरे दिन ही कुदाल और फावड़े लेकर खेत खोदने में जुट गए। परंतु कई दिनों तक परिश्रम करने के बाद भी उन्हें गड़ा हुआ धन प्राप्त नहीं हुआ। अब चारों ने जी-भर कर उसे कोसा, मगर अब क्या किया जाए ? अब चारों ने सलाह की कि जब खेत खुद ही गया है तो क्यों न इसमें अंगूर बो दिए जाएं। खेत की गहरी खुदाई हुई थी, इसलिए फसल बहुत अच्छी हुई तथा किसान के बेटों को आशा से अधिक जन प्राप्त हुआ। अब किसान के पुत्रों को इस बात का एहसास हुआ कि उनके पिता के कहने का क्या अर्थ था।
उसी दिन चारों भाइयों ने परिश्रम करने का संकल्प लिया, क्योंकि परिश्रम से जो धन उन्हें प्राप्त हुआ था, उससे उन्हें अपार खुशी हो रही थी।
निष्कर्ष: आलस्य व्यक्ति को निकम्मा बना देता है।

भेड़िया और सिंह


एक बार की बात है कि एक भेड़िया और एक सिंह शिकार की तलाश में साथ-साथ घूम रहे थे। एक प्रकार से भेड़िया शेर का मंत्री था।
भेड़िये कि सलाह पर शेर गौर अवश्य करता था। घूमते समय अचानक भेड़िये को भेड़ों के मिमियाने की आवाज़ सुनाई पड़ी।
‘‘आपने भेड़ों के मिमियाने की आवाज सुनी महाराज ?’’ भेड़िये ने पूछा, फिर बोला—‘‘आप यहीं ठहरिए। मैं जाकर देखता हूं और यदि हो सका तो एक मोटी-ताजी भेड़ मारकर आपके भोजन का प्रबन्ध करता हूं।’’
‘‘ठीक है।’’ सिंह बोला—‘‘मगर अधिक समय मत लगाना। मैं भूखा हूं।’’
भेड़िया भेड़ की तलाश में निकल पड़ा।
कुछ सौ गज आगे जाकर वह भेड़बाड़े के पास जा पहुंचा। मगर यह देखकर भेड़िये का मुंह लटक गया कि भेड़बाड़े के सभी दरवाजे मजबूती से बंद थे तथा बड़े-बड़े खूंखार कुत्ते भी भेड़बाड़े की निगरानी कर रहे थे।
भेड़िया समझ गया कि उसकी दाल नहीं गलने वाली। अब क्या करे ?
उसने सोचा कि जान जोखिम में डालने से तो बेहतर है कि लौट कर सिंह से कोई बहाना बना दिया जाए।
यह सोच भेड़िया लौट आया और सिंह से बोला—‘‘उन भेड़ों का शिकार करना बेकार है। वे बहुत दुबली-पतली और बीमार सी लगती हैं। उनके शरीर में जरा भी मांस नहीं है। उन्हें तो उनके हाल पर ही छोड़ देना अच्छा है। जब उनके शरीर पर चर्बी चढ़ जाए, तभी उन्हें खाना ठीक रहेगा और वैसे भी मोटी-ताजी भेड़ों को खाकर ही हमारी भूख मिट सकती है।’’
निष्कर्ष: डरपोक व्यक्ति खतरे से बचने के लिए कोई न कोई बहाना ढूंढ़ ही लेता है।

लोमड़ी और अंगूर


एक लोमड़ी थी, जो अंगूर खाने की बहुत शौकीन थी। एक बार वह अंगूरों के बाग से गुजर रही थी। चारों ओर स्वादिष्ट अंगूरों के गुच्छे लटक रहे थे। मगर वे सभी लोमड़ी की पहुंच से बाहर थे। अंगूरों को देखकर लोमड़ी के मुंह में बार-बार पानी भर आता था। वह सोचने लगी-‘वाह ! कितने सुंदर और मीठे अंगूर हैं। काश मैं इन्हें खा सकती।’ यह सोचकर लोमड़ी उछल-उछल कर अंगूरों के गुच्छों तक पहुंचने की कोशिश करने लगी। परंतु वह हर बार नाकाम रह जाती। बस, अंगूर के गुच्छे उसकी उछाल से कुछ ही दूर रह जाते थे। अंत में बेचारी लोमड़ी उछल-उछल कर थक गई और अपने घर की ओर चल दी। जाते-जाते उसने सोचा—‘ये अंगूर खट्टे हैं। इन्हें पाने के लिए अपना समय नष्ट करना ठीक नहीं !’
निष्कर्ष: जब कोई मूर्ख किसी वस्तु को प्राप्त नहीं कर पाता तो वह उसे तुच्छ दृष्टि से देखने लगता है।

नांद में कुत्ता


किसी गाँव में एक कुत्ता रहता था। वह झगड़ालू स्वभाव का था। एक दिन की घटना है कि वह एक अस्तबल में घुस गया और चारे की एक नांद पर चढ़ कर बैठ गया। उसे वह स्थान इतना पसन्द आया कि वह दिन भर वहीं लेटा रहा। उधर, जब घोड़ों को भूख लगी तो वे चारा खाने के लिए नांद की ओर आए। मगर वह कुत्ता किसी घोड़े को नांद के पास फटकने ही नहीं देता था। वह हरेक घोड़े पर भौंकता हुआ दौड़ता। बेचारे घोड़े अपना भोजन नहीं कर पा रहे थे। चूंकि चारा कुत्ते का भोजन नहीं था, इसलिए हुआ यह कि कुत्ता न तो खुद भोजन खा रहा था और न ही किसी घोड़े को खाने दे रहा था।
नतीजा यह हुआ कि स्वयं वह तथा घोड़े भूखे ही रह गए।
निष्कर्ष : किसी के हक पर जबरदस्ती कब्जा न करो।

भेड़िया आया !


किसी गांव में एक चरवाहा रहता था। उसे गांवभर की भेड़ें चराने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। वह भेड़ों को प्रतिदिन पहाड़ी पर स्थित चरागाह में ले जाता और उन्हें चरने के लिए छोड़ देता।
चरवाहा बालक अपने कार्य को भली प्रकार करता था। मगर एक ही जगह उन सभी जानी-पहचानी भेड़ों को प्रतिदिन ले जाकर चराते-चराते बेचारा ऊब-सा गया था। इसलिए उसने सोचा कि क्यों न दिल बहलाने के लिए कुछ हंसी-मजाक किया जाए। बस, लगा जोर-जोर से डरी आवाज में चिल्लाने—‘‘भेड़िया आया ! भेड़िया आया !...बचाओ ! भेड़िया भेड़ों को खा रहा है।’’
वह थोड़ी देर ठहरा और फिर जोर से चिल्लाया, ‘‘गांववालो, सोच क्या रहे हो, जल्दी आओ...मुझे और भेड़ों को बचाओ।’’
गांव वाले खेतों में काम कर रहे थे। उन्होंने चरवाहे की डरी हुई आवाजें सुनीं तो जो भी उनके हाथ में आया, वह लेकर भेड़िये को मारने के लिए पहाड़ी की ओर दौड़ पड़े।
परंतु वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि भेड़ें तो आराम से चर रही हैं और चरवाहा बालक हंस रहा था।
‘‘कहां है भेड़िया ?’’ गांव वाले क्रोध में बोले। मगर चरवाहा हंसता ही रहा।
फिर बोला, ‘‘कोई भेड़िया नहीं आया। मैं तो यूं ही मजाक कर रहा था, रोज एक-सा काम करते-करते ऊब गया हूं। आप लोग जाएं, अपना काम करें।’’
गांव वाले गुस्से में भुनभुनाते वहां से चले गए। लेकिन जाने से पहले उसे समझाना ना भूले, ‘‘तुम इसे मजाक कहते हो। यह मूर्खता के अलावा कुछ नहीं। भविष्य में ऐसा मजाक दोबारा मत करना वरना तुम्हें उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ सकते हैं, अपने किए पर पछताना पड़ सकता है।’’
दूसरे दिन चरवाहा भेड़ों को चराने पहाड़ी वाले मैदान पर ले गया। मगर जब वह एक पेड़ के नीचे बैठा अपनी बांसुरी बजा रहा था, तभी उसे गुर्राने की सी आवाजें सुनाई दीं। उसने सिर उठाकर देखा तो कुछ दूर सचमुच एक बड़ा-सा भयानक भेड़िया गुर्राता हुआ भेड़ों की ओर बढ़ रहा था।
भेड़ों ने एक खूंखार भेड़िए को अपनी ओर बढ़ते देखा तो मिमियाकर इधर-उधर भागने लगीं।
चरवाहा बालक भयभीत हो गया। लगा जोर – जोर से चिल्लाने—‘‘भेड़िया आया ! भेड़िया आया !! बचाओ...बचाओ !’’
इस बार वह बहुत डरा हुआ था। चिल्ला-चिल्ला कर सहायता की पुकार कर रहा था। वहा कांप रहा था और खेतों की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा था। मगर गांव वालों ने सोचा कि चरवाहा बालक मजाक कर रहा होगा, अतः वे नहीं आए।
भेड़िये ने भी चरवाहे बालक को भय से कांपते देखा तो समझ गया कि यहां कोई नहीं है, जो उसका मुकाबला कर सके। बस फिर क्या था, भेड़िये ने एक भेड़ की गरदन पकड़ी और देखते-ही-देखते उसे लेकर भाग गया। भेड़ें बुरी तरह मिमियाती और छटपटाती रहीं।
चरवाहा बालक रोता हुआ गांव वालों के पास आया और दर्दभरी कहानी सुनाई। वह अपने किए पर बुरी तरह पछता रहा था। चरवाहे बालक के माता-पिता तथा गांव वालों ने उसे खूब डांटा। बालक ने भी अपने मूर्खतापूर्ण कार्यों के लिए क्षमा मांगी और वादा किया कि भविष्य में वह ऐसा मजाक नहीं करेगा।
निष्कर्ष : झूठे व्यक्ति की सच बात पर भी लोग विश्वास नहीं करते।

खरगोश और कछुआ


दो मित्र थे—खरगोश और कछुआ। खरगोश अपनी तेज तथा कछुआ अपनी धीमी चाल के लिए प्रसिद्ध था।
एक बार दोनों आपस में बातें कर रहे थे।
खरगोश कछुए की धीमी गति का मजाक उड़ाने लगा। कछुआ खरगोश की बातें सुनकर चिढ़ गया, मगर फिर भी बोला—‘‘मैं धीमी गति से चलता हूं तो क्या हुआ, यदि हमारी आपसी दौड़ हो जाए तो मैं तुम्हें पराजित कर दूंगा।’’
कछुए की बातें सुनकर खरगोश आश्चर्य करने लगा, बोला—‘‘मजाक मत करो।’’
‘‘मजाक नहीं, मैं गंभीर हूं।’’ कछुआ बोला—‘‘मैं निश्चित रूप से तुम्हें पराजित कर दूंगा।’’
‘‘अच्छा ! खरगोश कछुए की बातें सुनकर हंसता हुआ बोला—‘‘तो फिर दौड़ हो जाए। हम एक रेफरी रख लेंगे और दौड़ का मैदान निश्चित कर लेंगे।’’
कछुआ खरगोश की बात पर राजी हो गया।
दूसरे दिन चूहे को रेफरी नियुक्त किया गया। नदी के किनारे पड़ने वाले एक मैदान को दौड़ के लिए चुना गया।
वहां से एक मील दूर स्थित बरगद के पेड़ को वह स्थान माना गया जहां दौड़ समाप्त होगी।
दौड़ आरम्भ होने से पहले रेफरी चूहा आया। उसने दोनों को नियत स्थान पर खड़ा किया—‘‘हाँ ! सावधान हो जाओ...और दौड़ो।’’ चूहा बोला।
दौड़ आरम्भ हो गई।
खरगोश तो पलक झपकते ही बिजली की गति से दौड़ा और बहुत दूर निकल गया। कछुए की चाल देखते ही बनती थी। वह बहुत धीमी गति से चल रहा था। खरगोश तेजी से दौड़ रहा था।
लगभग आधा मील पहुंचकर वह रुका और पीछे मुड़कर देखा कि आखिर कछुआ गया कहां। उसे कछुआ कहीं नजर नहीं आया।
वह सोचने लगा—‘अभी तो उसका दूर-दूर तक पता नहीं है। क्यों न तब तक मैं थोड़ी-सी घास खा लूं और आराम कर लूं। जब कछुआ नजर आएगा तो मैं उठकर दोबारा तेजी से दौड़ लूंगा।’ खरगोश ने तब थोड़ी हरी घास खाई। पानी पिया और एक पेड़ के नीचे लेटकर आराम करने लगा।
खरगोश लेटकर सोना तो नहीं चाहता था, परंतु नदी किनारे से आती ठंडी हवा ने उसे गहरी नींद सुला दिया। खरगोश खर्राटे लेकर सोता रहा।
दूसरी ओर कछुआ धीमी गति से मगर लगातार बिना रुके अपनी मंजिल की ओर बढ़ता जा रहा था।
खरगोश बहुत देर तक सोता रहा। जब वहा जागा तो उसे कछुआ कहीं नजर नहीं आया। चूंकि वह खूब सो चुका था, इसलिए उठते ही बहुत फुर्ती और तेजी से बरगद के पेड़ की ओर दौड़ने लगा। मगर पेड़ के पास पहुँचते ही मानो उस पर बिजली-सी गिरी। वह यह देखकर दंग रहा गया कि कछुआ तो वहां पहले से ही उपस्थित था। खरगोश दौड़ में हार चुका था। उसने भी अपनी पराजय स्वीकार कर ली।
उसने दोबारा कभी कछुए का मजाक उड़ाने का प्रयत्न नहीं किया।
निष्कर्ष : सफलता की राह में आलस सबसे बड़ी बाधा है।

कौआ और घड़ा


एक बार बड़ी ही भयानक गरमी पड़ रही थी। एक कौआ बहुत देर से आकाश में उड़ रहा था। तेज गरमी और लगातार उड़ते रहने से उसे बहुत तेज प्यास लगने लगी। प्यास बुझाने के लिए वह नीचे उतरा और इधर-उधर पानी की तलाश करने लगा। परंतु आसपास कहीं भी उसे पानी दिखाई नहीं दिया।
‘ओह ! अगर मुझे जल्दी ही पानी नहीं मिला तो मेरी तो जान ही निकल जाएगी।’ कौए ने सोचा।
तभी अचानक कौए को दूर एक पानी का घड़ा नजर आया। वह तुरंत उड़ता हुआ वहां पहुंचा और घड़े में झांकने लगा। घडे़ में पानी तो था, मगर इतना नीचे था कि कौआ वहां तक अपनी चोंच डालकर पानी नहीं पी सकता था।
कौआ परेशान होकर सोचने लगा—‘अब क्या करूं ? कैसे अपनी चोंच पानी तक पहुंचाऊं ?’ तभी उसे एक तरकीब सूझी।
घड़े के पास ही कुछ कंकड़-पत्थर पड़े थे। कौआ अपनी चोंच से कंकड़ लेकर घड़े के पास पहुंचा और कंकड़ घड़े में डाल दिया। इस तरह उसने कई कंकड़ घड़े में डाले।
वह यह देखकर प्रसन्न हो गया कि घड़े में पानी का स्तर धीरे-धीरे ऊंचा उठने लगा है। कौए को आशा बंधी कि अब वह पानी पी सकेगा। अपनी इस तरकीब की सफलता से खुश होकर वह दुगने उत्साह से घड़े में कंकड़ डालने में जुट गया।
अंत में उसकी कड़ी मेहनत रंग लाई। पानी का स्तर ऊपर उठकर घड़े के मुंह तक पहुंच गया। अब कौआ बहुत आसानी से पानी पी सकता था। कौए ने छक कर पानी पिया और संतुष्ट होकर दोबारा आकाश में उड़ गया।
निष्कर्ष : यदि व्यक्ति ठान ले तो असंभव कुछ भी नहीं।



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